कूर्म पुराण (Kurna Purana) : हिन्दू धर्म की मान्यता अनुसार (hindu religion beliefs ) यह माना जाता है कि भगवान् विष्णु (lord Vishnu) ‘कूर्मावतार’ अर्थात् कच्छप रूप में समुद्र मंथन के समय मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करने के प्रसंग में राजा इन्द्रद्युम्न को ज्ञान, भक्ति और मोक्ष का उपदेश देते है|
कूर्म पुराण संहिता :
कूर्म पुराण में चार संहिताएं हैं-
ब्राह्मी संहिता, भागवती संहिता, शौरी संहिता और वैष्णवी संहिता। इन चारों संहिताओं में आज केवल ब्राह्मी संहिता ही प्राप्य उपलब्ध है। शेष संहिताएं उपलब्ध नहीं हैं। ब्राह्मी संहिता में पुराणों के प्राय: सभी लक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग, देवों और ऋषियों के वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित तथा अन्य धार्मिक कथाएं आदि उपलब्ध हैं। इस पुराण ने वैष्णव, शैव और शाक्त-तीनों सम्प्रदायों को समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत किया है। सभी को समान मान्यता दी है।
सृष्टि की उत्पत्ति :
अन्य पुराणों की भांति ‘कूर्म पुराण’ में भी सृष्टि की उत्पत्ति ‘ब्रह्म’ से स्वीकार की गई है। सभी जड़-चेतन स्वरूपों में जीवन का अंश माना गया है और इस जीवन-अंश को ही ब्रह्म का अंश कहा गया है। जैसे-मेरू पर्वत की आयति और नियति दो कन्याएं थीं, जिनका विवाह धाता एवं विधाता से हुआ था। फिर उनकी भी सन्तानें हुईं। इस प्रकार जड़ पदार्थ को भी मानवीय रूप देकर पुराणकार ने उन्हें जीवित मनुष्य ही माना है। इसी सृष्टि से मानव जाति का भी विकास हुआ।
भारतीय पुराणकारों को विशेषता रही है कि उन्होंने सभी जड़-चेतन स्वरूपों में जीवन का अंश मानकर उनमें परस्पर बन्धुत्व की भावना समाहित की है और उन्हें पूजनीय बना दिया है। सबसे पहले इस पुराण में समुद्र मंथन से उत्पन्न विष्णु की माया अथवा शक्ति ‘Devi Laxmi‘ के प्रादुर्भाव का प्रसंग उठाकर उसकी स्तुति करने की बात कही गई है। तदुपरान्त विष्णु के नाभि कमल से Lord Brahma का जन्म होता है। फिर ब्रह्मा से उनके नौ मानस पुत्रों के जन्म का वृत्तान्त है। फिर वेदों में निहित ज्ञान की महिमा और वर्णाश्रम धर्म का विशद विवेचन है।kurma purana in hindi pdf
यहाँ कूर्म रूप में विष्णु भगवान स्वयं ऋषियों से चारों आश्रमों का उल्लेख करके उनके दो-दो रूप बताते हैं। यथा-ब्रह्मचर्य आश्रम के दो भेद- इस आश्रम में रहने वाले दो प्रकार के ब्रह्मचारी- ‘उपकुवणिक’ और ‘नैष्टिक’ होते हैं। जो ब्रह्मचारी विधिवत वेदों तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है, वह ‘उपकुवणिक ब्रह्मचारी’ होता है और जो मनुष्य जीवनपर्यन्त गुरु के निकट रहकर ब्रह्मज्ञान का सतत अभ्यास करता है, वह ‘नैष्टिक ब्रह्मचारी’ कहलाता है।
गृहस्थाश्रम के दो भेद- गृहस्थाश्रम में रहने वाले व्यक्ति ‘साधक’ और ‘उदासीन’ कहलाते हैं। जो व्यक्ति अपनी गृहस्थी एवं परिवार के भरण-पोषण में लगा रहता है, वह ‘साधक गृहस्थ’ कहलाता है और जो देवगणों के ऋण, पितृगणों के ऋण तथा ऋषिगण के ऋण से मुक्त होकर निर्लिप्त भाव से अपनी पत्नी एवं सम्पत्ति का उपभोग करता है, वह ‘उदासीन गृहस्थ’ कहा जाता है।
वानप्रस्थ आश्रम के दो भेद- इसे दो रूपों ‘तापस’ और ‘सांन्यासिक’ में विभक्त किया गया है। जो व्यक्ति वन में रहकर हवन, अनुष्ठान तथा स्वाध्याय करता है, वह ‘तापस वानप्रस्थी’ कहलाता है और जो साधक कठोर तप से अपने शरीर को कृश एवं क्षीण कर लेता है तथा ईश्वराधना में निरन्तर लगा रहता है, उसे ‘सांन्यासिक वानप्रास्थी’ कहा जाता है।
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संन्यास आश्रम के दो भेद-
संन्यास आश्रम में रहने वाले व्यक्ति ‘पारमेष्ठिक’ तथा ‘योगी’ कहलाते हैं। नित्यप्रति योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने वाला तथा मोक्ष की कामना रखने वाला साधक ‘पारमेष्ठिक संन्यासी’ कहलाता है और जो व्यक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कर अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है, वह ‘योगी संन्यासी’ कहा जाता है।
यहाँ पुराणकार ने निष्काम कर्म योग साधना; Narayan, Vishnu, Brahma और lord shiv नामों की व्याख्या, चतुर्युग वर्णन, काल वर्णन, नौ प्रकार की सृष्टियों का वर्णन, मधु-कैटभ राक्षस की उत्पत्ति और उनके वध का दृष्टान्त, भगवान शिव के विविध रूपों तथा नामों की महिमा का वर्णन, शक्ति की उपासना का गूढ़, गहन तथा भावुक वर्णन, दक्ष कन्याओं द्वारा उत्पन्न सन्तति का वर्णन, Lord Narsingh अवतार लीला का वर्णन, भक्त प्रह्लाद का चरित्र, सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली, चन्द्र वंश की वंशावली, वाराणसी के विश्वेश्वर लिंग की महिमा, व्यास और जैमिनि ऋषि के मध्य धर्म सम्बन्धी संवादों का विवरण, स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में जाने का वर्णन, मोक्ष वर्णन तथा पौराणिक भूगोल का विस्तृत उल्लेख किया है।kurma purana in hindi pdf
ईश्वर गीता और व्यास गीता :
ये सारे विषय ‘कूर्म पुराण’ के पूर्वार्द्ध भाग में समाहित हैं। इस पुराण के उत्तरार्द्ध में ‘ईश्वर गीता’ और ‘व्यास गीता’ का बड़ा ही सुन्दर-दार्शनिक विवेचन किया गया है। ईश्वर और भगवान शिव के मध्य हुए संवाद को ऋषिगण ग्रहण करते हैं। उसे ‘ईश्वर गीता’ का नाम दिया गया है। इस Geeta पर व्यास जी द्वारा ‘महाभारत’ में रचित ‘श्रीमद्भागवत गीता’ का गहरा और व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसमें नटराज शिव | Natraj Shiv के विश्व रूप का वर्णन है। ‘आत्मतत्त्व’ के स्वरूप का निरूपण करते हुए स्वयं भगवान शिव कहते हैं कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार का, धूप और छाया को कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता, उसी प्रकार ‘आत्मा’ और ‘प्रपंच’ दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। सुख-दुख, राग-द्वेष, स्थूल और सूक्ष्म आदि आत्मा के लक्षण नहीं हैं। ये सभी विकार हैं, जिन्हें मनुष्य अपने अहंकार के कारण धारण कर लेता है। इसका मूल कारण अज्ञान है। जब योगी सभी प्राणियों में आत्मा का समभाव देखने लगता है, तभी वह सच्चा प्रेमी हो जाता है। व्यास की ‘श्रीमद्भागवद् गीता‘ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ (श्रीमद्भागवद् गीता 6/32)
अर्थात हे अर्जुन! वह व्यक्ति पूर्ण योगी है, जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों के सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।
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