प्राचीन काल में महर्षि मैत्रेय ने श्री पाराशर मुनि के आश्रम में जाकर उन्हें प्रणाम किया फिर स्वस्थ चित्त से सत्संग प्रारंभ हुआ। मैत्रेय ने कहा, हे महात्मन् ! मेरे मन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं उन्हीं के उत्तर की अकांक्षा से मैं आपके दर्शन करने चला आया। आप अपने श्री मुख से अमृत वर्षा करके मुझे कृतार्थ करने की कृपा करें। इस संसार की उत्पत्ति कैसे हुई। पहले यह किसमें लीन था। प्रलय काल में किसमें लीन होगा। पंच महाभूत, भूमि, वन, पर्वत, देव, मानव तथा मन्वन्तर के विषयों पर आप प्रकाश डाल कर मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिये।
तब प्रसन्न होकर महर्षि पाराशर बोले हे, महात्मन् ! यह प्रसंग मेरे पितामह वशिष्ठ जी तथा पुलस्त्य जी से मैंने सुना था। मैं आपकी जिज्ञासा यथासम्भव शान्त करूँगा। आप पूर्णमनोयोग से सुनें। प्राचीन काल में विश्वामित्र की प्रेरणा से मेरे पिता को एक राक्षस ने खा डाला था जिससे मेरा क्रोध बढ़ गया था। शोक एवं क्रोधावेश में आकर मैंने राक्षसों का विनाश करने के लिये एक यज्ञ अनुष्ठित किया। यज्ञाहुतियों के साथ सैकड़ों राक्षस जल कर भष्म होने लगे। तब मेरे दादा वशिष्ठ जी ने मुझसे समझाते हुए कहा हे वत्स ! क्रोध का त्याग करो। इन राक्षसों का क्या दोष ? तुम्हारे पिता के भाग्य का लेख ही ऐसा था। ज्ञानी को क्रोध शोभा नहीं देता। मारना जिलाना ईश्वर के आधीन है भले ही निमित्त कोई भी बन जाय। यज्ञ को यहीं विराम दो ! क्षमा साधु का भूषण होता है।
उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने यज्ञ बन्द कर दिया। मेरे दादा वशिष्ठ जी मुझ पर प्रसन्न हुए। उसी समय पुलस्त्य जी भी वहाँ आ गए। वशिष्ठ जी ने उनका अभिवादन करते हुए उन्हें अर्ध्य देकर आसन प्रदान किया। फिर बातों-बातों में मेरे विषय में भी बता दिया। तब पुलस्त्य जी ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा कि तुमने अपने पितामह की आज्ञा मानकर क्षमा का आश्रय लिया। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ कि सम्पूर्ण सास्त्रों का ज्ञान तुम्हें सहज ही हो जाएगा और तुम पुराण संहिता की रचना करोगे तथा तुम्हें ईश्वर के यथार्थ रूप का ज्ञान हो जायेगा। पूर्वर्ती काल में उन दोनों ऋषियों के वर के प्रभाव से मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया। यह संसार विष्णु के द्वारा उत्पन्न किया गया वही इसके पालक हैं तथा प्रलय में यह उन्हीं में लय हो जाता है।
सृष्टि का उद्भव
महर्षि पाराशार ने कहा हे मुनीश्वर ! ब्रह्मा रूप में सृष्टि विष्णु रूप में पालन तथा रुद्र रूप में संहार करने वाले भगवान विष्णु को नमन करता हूँ। एक रूप होते हुए भी अनेक रूपधारी, अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त रूप वाले, घट घट वासी अविनाशी पुरुषोत्तम को नमस्कार करते हुए मैं आपके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के विषय में कहने जा रहा हूँ।
भगवान नारायण त्रिगुण प्रधान तथा विष्ण के मूल है। वह अनादि हैं। उत्पत्ति लय से रहित हैं। वह सर्वत्र तथा सबमें व्याप्त हैं। प्रलय काल में दिन था न रात्रि, न पृथ्वी न आकाश, न प्रकाश और न अन्धकार ही था। केवल ब्रह्म पुरुष ही था। विष्णु के निरूपाधि रूप से दो रूप हुए। पहला प्रधान और दूसरा पुरुष। विष्णु के जिस अन्य रूप द्वारा वह दोनों सृष्टि तथा प्रलय में संयुक्त अथवा वियुक्त होते हैं उस रूपान्तर को ही काल कहा जाता है। बीत चुके प्रलय काल में इस व्यक्त प्रपंच की स्थित प्रकृति में ही थी।
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